युद्ध और युद्ध का कारोबार दोनों एक जैसे हैं। आज की दुनिया में युद्ध होते ही इसलिए हैं, जिससे युद्ध का कारोबार फले-फूले। यूरोप और अमेरिका के विकसित देश अब इसलिए आपस में नहीं लड़ते कि वे रक्षा साधनों का विकास खुद कर सकते हैं , जो न करते हों वे भी इसकी तकनीकी क्षमता से सम्पन्न हैं। अफ्रीका और एशिया समेत दुनिया के तमाम पिछड़े देश उनकी प्रयोगशाला भी है और बाजार भी। इन प्रयोगशालाओं में नरसंहार भी होगा और खरीद-बेसाह, दलाली, मुनाफाखोरी और कालाबाजारी भी। बोफोर्स, ताबूत और राफेल की बात पर हंगामा इसलिए होता है कि विपक्षियों को मुद्दा चाहिए, अन्यथा तीसरी दुनिया का कोई सामरिक खरीद फरोख्त बिना बिचौलिए और घोटाले की नहीं होती। यह क्षेत्र घोटालेबाजों का अतिप्रिय चारागाह रहा है और है। एक ओर इसके कमीशन बड़े और काम रिस्क वाले होते हैं, वहीं सुरक्षा और गोपनीयता के नाम पर इसे छुपाना भी आसान होता है। यदि उससे भी न चले तो जाँच और पारदर्शिता की मांग करने वालों को शत्रुदेशों का एजेंट और राष्ट्रद्रोही कहना और आसान होता है। राष्ट्र की सुरक्षा ऐसा भावुक विषय है कि उसके नाम पर देश की मासूम जनता को बहलाना आस...