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अनौपचारिक होते हुए भी क्यों बेहद ज़रूरी है पीएम मोदी का चीन दौरा

भारत के प्रधानमंत्री माननीय मोदी वर्तमान में चीन के अनौपचारिक दौरे पर हैं।  यह पूर्व घोषित तथ्य है कि इसमें प्रत्यक्ष कुछ हासिल नहीं होने वाला है, कोई समझौता नहीं होगा।  इसलिए इस दौरे को लेकर ना जनता में उतना उत्साह है और न मीडिया में। भारत और चीन जैसे दो बड़े देशों, पड़ोसी देशों, उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं और एशिया महाद्वीप की स्थिरता को बनाए रखने के लिए उत्तरदायी देशों की यह मुलाकात फिर भी मायने रखती है । लेकिन, भारतीय प्रधानमंत्री का अचानक अनौपचारिक पाकिस्तान दौरे की कहानी मीडिया से लेकर सोशल मीडिया के लिए जितना आकर्षण का केंद्र बनी थी, उतना उनका यह दौरा नहीं है।  इसके पीछे भारतीय मानस में पाकिस्तान के प्रति बैठी हुई गहरी दुश्मनी है, जिसे मीडिया बार-बार उकसाता रहा है।  संबंध भारत-चीन के बीच भी प्रायः तनावपूर्ण ही रहे हैं। हम एक युद्ध भी लड़ चुके और बार-बार युद्ध के तनाव भी झेल चुके हैं, फिर भी भारतीयों के भीतर चीन के प्रति वह दुश्मनी का भाव नहीं है। सामाजिक माध्यमों पर तमाम नारों और बहिष्कार के पोस्टरों के बावजूद यह भ्रम ही साबित हुआ है कि भारत की जनता चीनी मा...

उच्च शिक्षित बेरोज़गार सरकार के एजेंडे में क्यों नहीं

देश में एक वर्ग ऐसा भी है जो उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी शहरों, नगरों या फिर किसी महानगरों में रोज़गार की तलाश में भटक रहा है। ऐसे उच्च डिग्रीधारी लोगों का कोई स्थाई ठिकाना नहीं है और ये अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। रोज़ सुबह एक उम्मीद लिए मैदान में उतरता है और शाम होते ही निराश चेहरे के साथ अपने आशियाने में वापस लौट जाता है। कभी दिन अच्छा हुआ तो अखबार में कोई विज्ञापन देखने के बाद कोई छोटी-मोटी नौकरी लग जाती है और अगर दिन सही नहीं हआ तो खाली हाथ घर आना पड़ता है।  हैरत की बात यह है कि यह वर्ग फिर भी जी रहा है, विवाह कर रहा है, बच्चे पैदा कर रहा है और उन्हें जैसे-तैसे पढ़ा-लिखाकर अपनी-सी स्थिति में खड़ा कर चुप-चाप नया भारत गढ़ रहा है। मेरे एक साथी ने जब मेरा ध्यान इस ओर आकर्षित किया तब मुझे उच्च शिक्षा प्राप्त बेरोज़गार लोगों की ज़िन्दगी के बारे में सोचने का अवसर प्राप्त हुआ। अब आप कह सकते हैं कि यह वर्ग खुद-ब-खुद कोई काम क्यों नहीं करता? कोई धंधा-पानी ? हमारे देश की हालत ऐसी हो चली है कि उच्च शिक्षित बेरोज़गारों को कोई प्रॉपर ट्रेनिंग भी नहीं मिलती है जि...

यौन हिंसा की कवरेज में मीडिया को सनसनी नहीं संवेदना दिखानी चाहिए

हिंसा हमारे दौर का सबसे खतरनाक, लेकिन सर्वाधिक प्रचलित शब्द है। सावाल केवल चार सालों का नहीं, उससे पहले और आने वाले समय का भी है। मुझे 2007-2008 की 31दिसंबर/01 जनवरी की रात अब भी याद है, जव न्यू ईयर इव से लौटती लड़कियों के साथ अनाचार हुआ था और पूरा मीडिया बौखलाया हुआ था। उसी साल एक महीन में दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में लगातार यौन हिंसा के हादसे हुए थे। पूरी मीडिया इन खबरों से दहली हुई थी। यह वही साल है जब एक बच्चे ने हरियाणा के एक प्रतिष्ठित स्कूल में अपने सहपाठी की स्कूल में पिता के पिस्टल से मारकर जान लेली थी। ठीक उसी तरह जैसे रेयान पब्लिक स्कूल में पिछली साल हुआ था। मुझे वह बरेली हादसा भी याद है जब दो बहनों की लाशे पेड़ पर लटकती मिलीं थीं। और, मुझे दामिनी भी याद है पर अफसोस, भारत के लोगों की यादाश्त थोड़ी कमज़ोर है, खासकर मीडिया की। उसे हर हादसे को यूनिक बनाकर पेश करने की हड़बड़ी रहती है।  आज एक हादसा अचानक हमारे नाश्ते की टेबल पर हमारे अखबारों के साथ आता है और अगले ही दिन उसकी जगह दूसरा ‘यूनिक’ हादसा हमारी मेज पर होता है।  कभी-कभी तो वह नाश्ते की मेज और दिना...

कौन-सी रस्म सबसे जरूरी है विवाह के लिए

सामाजिक माध्यम हमारे व्यवहार, चिंतन और विचार-विनिमय की रीढ़ बन गए हैं। ऐसे में सामाजिक माध्यमों पर चलने वाली बहसें आज महत्वपूर्ण हैं। छठ पर्व के बहाने बिहार की स्त्रियों के नाक पर सिंदूर लगाने के प्रश्न को लेकर हिन्दी की प्रसिद्ध स्त्रीवादी लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने पूरे स्त्री समुदाय में सिंदूर के प्रयोग को प्रश्नांकित किया। इसपर सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ लिखा भी गया और परंपरागत मीडिया ने भी इस मुद्दे पर पर बहस की। अवश्य ही यह नया प्रश्न नहीं है, पर उन्होंने इसे नए सिरे से इसे उठाया है। हममें से तमाम परिवारों की स्त्रियां सधवा धर्म के पालन के लिए सिंदूर का प्रयोग करती हैं, जबकि पुरुष इस तरह का कोई विवाह चिह्न धारण नहीं करते। यह सामाजिक विभेद की प्रवृत्ति को बतता है। आज की युवा पीढ़ी धीरे-धीरे इससे दूर जा रही है वह भी बिना किसी हो-हल्ले के। यह भी उतना ही सही है जितनी पहली बात। इन सभी प्रश्नों से अलग एक और सवाल है कि क्या एक हिन्दू स्त्री के लिए सचमुच सिंदूर अनिवार्य है ? क्या इसका कोई शास्त्रीय विधान है या जिस विवाह मंडप में एक लड़की को सिंदूर पहनाकर स्त्री बना दिया जाता है, उसके व...

कितनी प्रदूषित है दिल्ली की हवा

हिन्दी के मशहूर कवि केदारनाथ अग्रवाल ने एक कविता लिखी है जिसका शीर्षक है ‘बसंती हवा’। उस कविता में हवा कहती है,  “हवा हूं हवा, मैं बसंती हवा हूं।”  भारत में बसंत ऋतु की हवा को सबसे अच्छी, मादक और मस्त हवा माना जाता है। बसंत का दूसरा नाम ऋतुराज भी है पर एक अन्य ऋतु है, शरद ऋतु यानि ठण्ड का मौसम। इस ऋतु का महत्व भी बसंत से कम नहीं है। अपने पुराने ऋषि-मुनि कहा करते थे कि कर्म करते हुए सौ ‘शरदों’ तक जीने की इच्छा रखनी चाहिए, यानी शरद उनके लिए बसंत से भी अच्छा था। उस ज़माने में शरद का मान बसंत से कहीं अधिक रहा होगा या कम से कम ऋषि-मुनि जैसे सादगी से जीने वाले लोगों के लिए यह ऋतु अधिक सुखकर रही होगी। कहां बसंत की रंगीनियां, मस्ती और मादकता और कहां तपस्या से शुभ्र, निरभ्र और दीपित व्यक्तित्व। इनका कहां कोई मेल है? शायद इसलिए उन्होने बसंत की जगह शरद को चुना। शरद का मिजाज़ भी उन्हीं की तरह शांत सौम्य लेकिन दीप्त है। खुला आसमान, खिली धूप और सुबह-शाम की हवा में हलकी खुनकी। शरीर को निरोगी बनाने वाली और मन को निष्पाप सुंदरता से भर देने वाली, तपस्वी की तरह ही खुली, सुंदर, सुरुचि सम्पन्न...

कहाँ गए पुवाल वाले लोग

सर्दियों की ठिठुरती सुबह में दादा-दादी या नाना-नानी के साथ पुआल पर रजाई में बैठे किटकिटाते बच्चे, दांतों के इस कीर्तन के बीच बहुत कुछ सीखते थे। गिनती, पहाड़े, किस्से-कहानियां, भजन-गीत आदि। वह पुआल वाली सुबह बहुत उर्वर होती थी, कब इन सुबहों में बोया गया बीज बड़ा पेड़ बना जाता और बच्चे अपनी परंपरा में दीक्षित हो जाते, पता ही नहीं चलता। पुआलों पर चलने वाली ये घरेलू सांस्कृतिक पाठशालाएं कब बंद हुई, इसे किसी ने नोट नहीं किया। गांव-गिरांव में महंगे स्कूल खुल गए। अपनी-अपनी जेब के अनुसार सबके बच्चे इन स्कूलों में जाने लगे और सीखने लगे ए फॉर ऐप्पल, बी फॉर बॉल। शिक्षा का आधुनिकीकरण हुआ, जीवन बदला, जीवन स्तर बदला साथ ही जीवन को देखने का नज़रिया भी। कल तक एक छप्पर छानने और उठाने के लिए आगे बढ़ने वाले हाथ, आज खेत की मेढ पर बोझा लिए बनिहार या किसान के बोझे को सिर पर रखवाने के लिए भी आगे नहीं बढ़ते। शाम ढलता देख अपनी-अपनी झोरी में बीज रखकर खेत में छिटवाने वाले दूसरे किसान और राहगीर रास्ते से गुज़रते वक्त ठहरकर दो गाल बात भी नहीं करते। फुर्सत किसे है भला? ज़रूरत हो तो बनिहार-मजूर लगा लो। गांव-घर, खे...

क्यों जरूरी है अङ्ग्रेज़ी

मध्यकाल में केशवदास नाम के हिन्दी के एक मशहूर कवि हुए। उन्होंने ब्रजभाषा में कविताएं लिखीं। अपने समय में उनके पांडित्य और आचार्यत्व की धाक ऐसी थी कि उक्ति ही चल पड़ी थी— ‘कवि को देन न चहै विदाई पूछत केसव की कविताई’। वे राज-समाज के अत्यंत प्रिय थे और राजा उनको दरबार में बुलाने के लिए पालकी भेजते थे तब वे दरबार में जाते थे, लेकिन उनके जीवन का एक ही कष्ट था कि ‘भाखा बोल न जानहीं जिनके कुल के दास’ उस कुल में जन्म लेकर भी केशवदास को ब्रजभाषा में कविताएं लिखनी पड़ रहीं थीं। यह दर्द केशव का ही नहीं था, यह उस हर बड़े कवि या रचनाकार का दर्द है जो स्वयं के अभिजात बोध से पीड़ित रहते हुए भी जन दबाव में लोकभाषाओं के वजूद को अस्वीकार करता है। कुछ कम ही ऐसे अभिजातवर्गीय कवि होते हैं जो उस भाषा को अपनी ज़ुबान बनाते हों जो अभिजात वर्ग में सहज स्वीकार्य न होते हुए भी लोक-सामान्य में गहरी पैठ रखती हो। अमीर खुसरो इसके अच्छे उदाहरण हैं। कवियों का उल्लेख बात शुरू करने का बहाना-भर है। यह बात कविता और साहित्य की दुनिया के बाहर सामान्य जीवन में भी लागू होती है। पुराने ज़माने के राजा, सामंत या दरबारी ही नहीं...