सर्दियों की ठिठुरती सुबह में दादा-दादी या नाना-नानी के साथ पुआल पर रजाई में बैठे किटकिटाते बच्चे, दांतों के इस कीर्तन के बीच बहुत कुछ सीखते थे। गिनती, पहाड़े, किस्से-कहानियां, भजन-गीत आदि। वह पुआल वाली सुबह बहुत उर्वर होती थी, कब इन सुबहों में बोया गया बीज बड़ा पेड़ बना जाता और बच्चे अपनी परंपरा में दीक्षित हो जाते, पता ही नहीं चलता। पुआलों पर चलने वाली ये घरेलू सांस्कृतिक पाठशालाएं कब बंद हुई, इसे किसी ने नोट नहीं किया। गांव-गिरांव में महंगे स्कूल खुल गए। अपनी-अपनी जेब के अनुसार सबके बच्चे इन स्कूलों में जाने लगे और सीखने लगे ए फॉर ऐप्पल, बी फॉर बॉल। शिक्षा का आधुनिकीकरण हुआ, जीवन बदला, जीवन स्तर बदला साथ ही जीवन को देखने का नज़रिया भी। कल तक एक छप्पर छानने और उठाने के लिए आगे बढ़ने वाले हाथ, आज खेत की मेढ पर बोझा लिए बनिहार या किसान के बोझे को सिर पर रखवाने के लिए भी आगे नहीं बढ़ते। शाम ढलता देख अपनी-अपनी झोरी में बीज रखकर खेत में छिटवाने वाले दूसरे किसान और राहगीर रास्ते से गुज़रते वक्त ठहरकर दो गाल बात भी नहीं करते। फुर्सत किसे है भला? ज़रूरत हो तो बनिहार-मजूर लगा लो। गांव-घर, खे...
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