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कहाँ गए पुवाल वाले लोग

सर्दियों की ठिठुरती सुबह में दादा-दादी या नाना-नानी के साथ पुआल पर रजाई में बैठे किटकिटाते बच्चे, दांतों के इस कीर्तन के बीच बहुत कुछ सीखते थे। गिनती, पहाड़े, किस्से-कहानियां, भजन-गीत आदि। वह पुआल वाली सुबह बहुत उर्वर होती थी, कब इन सुबहों में बोया गया बीज बड़ा पेड़ बना जाता और बच्चे अपनी परंपरा में दीक्षित हो जाते, पता ही नहीं चलता। पुआलों पर चलने वाली ये घरेलू सांस्कृतिक पाठशालाएं कब बंद हुई, इसे किसी ने नोट नहीं किया। गांव-गिरांव में महंगे स्कूल खुल गए। अपनी-अपनी जेब के अनुसार सबके बच्चे इन स्कूलों में जाने लगे और सीखने लगे ए फॉर ऐप्पल, बी फॉर बॉल। शिक्षा का आधुनिकीकरण हुआ, जीवन बदला, जीवन स्तर बदला साथ ही जीवन को देखने का नज़रिया भी। कल तक एक छप्पर छानने और उठाने के लिए आगे बढ़ने वाले हाथ, आज खेत की मेढ पर बोझा लिए बनिहार या किसान के बोझे को सिर पर रखवाने के लिए भी आगे नहीं बढ़ते। शाम ढलता देख अपनी-अपनी झोरी में बीज रखकर खेत में छिटवाने वाले दूसरे किसान और राहगीर रास्ते से गुज़रते वक्त ठहरकर दो गाल बात भी नहीं करते। फुर्सत किसे है भला? ज़रूरत हो तो बनिहार-मजूर लगा लो। गांव-घर, खे...

क्यों जरूरी है अङ्ग्रेज़ी

मध्यकाल में केशवदास नाम के हिन्दी के एक मशहूर कवि हुए। उन्होंने ब्रजभाषा में कविताएं लिखीं। अपने समय में उनके पांडित्य और आचार्यत्व की धाक ऐसी थी कि उक्ति ही चल पड़ी थी— ‘कवि को देन न चहै विदाई पूछत केसव की कविताई’। वे राज-समाज के अत्यंत प्रिय थे और राजा उनको दरबार में बुलाने के लिए पालकी भेजते थे तब वे दरबार में जाते थे, लेकिन उनके जीवन का एक ही कष्ट था कि ‘भाखा बोल न जानहीं जिनके कुल के दास’ उस कुल में जन्म लेकर भी केशवदास को ब्रजभाषा में कविताएं लिखनी पड़ रहीं थीं। यह दर्द केशव का ही नहीं था, यह उस हर बड़े कवि या रचनाकार का दर्द है जो स्वयं के अभिजात बोध से पीड़ित रहते हुए भी जन दबाव में लोकभाषाओं के वजूद को अस्वीकार करता है। कुछ कम ही ऐसे अभिजातवर्गीय कवि होते हैं जो उस भाषा को अपनी ज़ुबान बनाते हों जो अभिजात वर्ग में सहज स्वीकार्य न होते हुए भी लोक-सामान्य में गहरी पैठ रखती हो। अमीर खुसरो इसके अच्छे उदाहरण हैं। कवियों का उल्लेख बात शुरू करने का बहाना-भर है। यह बात कविता और साहित्य की दुनिया के बाहर सामान्य जीवन में भी लागू होती है। पुराने ज़माने के राजा, सामंत या दरबारी ही नहीं...

क्यों जरूरी है जानना अपनी संस्कृति को : मनु स्मृति दहन दिवस विशेष

भारत में जातिगत विद्वेष के आधार पुराने हैं, न केवल विभिन्न वर्णों के भीतर बल्कि एक ही वर्ण के भीतर भी । वस्तुतः जातियों का उदय ही वर्ण-व्यवस्था की असफलता के कारण हुई । सच तो यह है कि न तो जाति और न ही वर्ण कभी स्थिर रहे हैं । इसके प्रमाण तैतरीय उपनिषद, महाभारत-संहिता के शांति-पर्व, मनुस्मृति आदि तमाम पुराने ग्रन्थों में बिखरे पड़े हैं । पूरी मनुस्मृति को अगर अच्छी तरह पढ़ा जाय तो हम पाते हैं कि उसमें एक छटपटाहट है, न कि व्यवस्था का पालन कराने का बल। मनु ने जिस तरह जाति और वर्ण की पूरी व्यवस्था रची है, वह मार्गदर्शक कम पीड़ा-व्यंजक अधिक है । इसमें एक ऐसे व्यक्ति की पीड़ा और छटपटाहट है, जो असफल है। जो कुछ सहेजना और बचाना चाहता है, लेकिन असफल है । इसलिए जहां-तहां तिक्त और कठोर व्यवस्थाओं की बात करता है । यह तिक्तता और कठोरता ही वर्ण-व्यवस्था की असफलता की गवाह और उसे बचाने की चाहत रखने वालों की असहायता को व्यक्त करती है। यादी उसका ईमानदार पाठ किया जाय तो इसतरह के रूढ़िवादी वर्ग की असफलता उसमें साफ महसूस की जा सकती है, जो वर्णव्यस्था को बल-पूर्वक लागू करना चाहता है । जब ऐसा नहीं कर पाता तो व...

संकृति को बचाना है तो रखें इसका ध्यान

नदी और मनुष्य के बीच अत्यंत पुराना और गहरा रिश्ता है। विश्व की लगभग सभी पुरानी सभ्यताएँ; चाहे वह सिंधु‌‌-घाटी सभ्यता हो या नील नदी की सभ्यता अथवा मेसोपोटामिया की, इस रिश्ते की साक्षी हैं। नदी मनुष्य की जरूरतों के लिए जल और उसके परिवहन की माध्यम भर नहीं हैं, बल्कि सहस्राब्दियों के इस साहचर्य ने दोनों में रागात्मक संबंध विकसित कर दिया है। कहीं वह माँ है, तो कहीं प्रेयसी और कहीं देवी या ईश्वरीय शक्ति— जीवन में प्रेम, रस और आध्यात्म की प्रतीक। नदी माँ है, अपने आँचल में रस का अक्षय भंडार संचित किये हमारी धरती, हमारी क्षुधा और हमारी संस्कृति को अपने प्राण-रस से तृप्त कर उसे पुष्ट करने वाली माँ। वह अन्नदा है। वह पुष्टिदा है। वह सरस है। आनंदमयी है। शाम की गोधुली में घर लौटती रँभाती गायों को सिकम-भर (जी-भर) जल पिलाकर तृप्त कर देने वाली नदी, उनमें दूध का अमृत-स्रोत भर देने वाली नदी, धरती को सींच कर हरी-भरी कर देने वाली नदी माँ नहीं मातामही है। मातृ-रूपा धरती और गो दोनों का पोषण करने वाली दोनों को सरस करने वाली मातामही। नदी मानुष्य की सनातन प...

क्योंकि मुझे डर नहीं लगता

बचपन से कैशोर्य तक जीवन का एक बड़ा हिस्सा कन्नौज में बीता, जहां घर में शाम ढलते ही घर लौट आने की हिदायत थी । हत्या, लूट और बलात्कार अपहरण के कारनामों से अखबार रंगे रहते थे और तब हमें लगता था कि गाजीपुर का हमारा इलाका शांत है । एक बार इटावा भी गया और संयोग से वहाँ के लोगों का डर देखने और महसूस करने का मौका मिला । भोर में जब हम कॉलेज के12-15 लड़के उस अनजान इलाके में कॉलेज कैंप से भोर में 4:30 पर दिशा-मैदान के लिए कॉलेज बेफिकर गाँव-खेत की ओर निकले और गाँव वाले डाकुओं के झुंड के अंदेशे में हमसे डर गए । पिता जी बिहार में माननीय लालू जी के जनपद में उनकी सरकार के दौरान पदस्थ थे और मैं वहाँ गर्मी की छुट्टियों में जाता रहा। तब चौराहे पर दौड़ा कर की जाती हत्याएँ और तमाशाबीन भीड़ के किस्से सुने और लोगों के डर को देखा-महसूस किया। जब कन्नौज से बनारस लौटा । घर के पास आगया तब गाजीपुर-आजमगढ़-जौनपुर के बादशाहों के नाम सुने, हत्याओं की खबरें पढ़ीं । गाँव से लेकर कस्बे और जिले तक हत्याओं की खबरे देखी, सुनी. पढ़ीं और प्रत्यक्ष महसूस भी किया; आम आदमी से लेकर विधायक और पार्षद तक की अनगिनत हत्याओं की शृं...

इस दिवाली आपके खिलौनों की बड़ी याद आ रही है कुम्हार बाबा

आज दिया-दियारी है। हमारे गाँव घर का जाना-चीन्हा त्यौहार। दिया-दियारी से दीपावली तक हमारे पास बहुत कुछ था जो छूट गया। चन्देव बाबा थे, हमारे पुश्तैनी कुम्हार, उनके हाथ की बारीक कला थी, घुर्ली थी, गुल्लक थे, दिए थे, भोंभा थे, घंटियां थी… उनके हाथ की छुअन थी कि माटी के बेडौल टुकड़े में भी जान भर देती— कोई न कोई आकृति निकाल ही देती। बचपन में दादी और माँ कभी किसी बर्तन के लिए भेजतीं तो मैं तमाम छोटी-बड़ी रंग-बिरंगी आकृतियों बीच देर तक चक्कर काटता रहता। कभी-कभी उनके चाक का चलना, हाथों के सहारे नई आकृतियों का उभरना और एक सूत के सहारे बहुत बारीकी से इसे मिट्टी के शेष लोने से काटकर अलग कर लेना देर तक निहारता रहता। कभी पूछता बाबा ये चाक एक डंडे से कैसे चलता है ? चंदेव बाबा बड़े प्यार से समझाते कि यह कोई बड़ी बात नहीं बस थोड़ा सीखना होता है । मैं कहता बाबा मैं भी चलाऊंगा तो वो बोलते,  ‘बाबू लोग चाक ना चलावे ला। ई त कोंहार क काम ह।’  कोंहार अलग होता है और बाबू के लाइका-बच्चा अलग ये बात गांव घर में बहुत छिटपन में ही पता चल जाती है, सो मुझे भी पता थी और मैं विशिष्टता-बोध से भरकर हट जाता। हां ...

उन मुस्लिम हस्तियों को क्यों अधिक खतरा है जिनकी पत्नियाँ हिन्दू-बेटियाँ हैं

मुझे नसीरुद्दीन शाह के बयान में दो बाते अच्छी लगी। पहली कि अच्छाई या बुराई से धर्म का रिश्ता नहीं है और दूसरा हमें हालात से डरना नहीं उस पर गुस्सा आना चाहिए। इससे लगता है कि वे भीड़ के कानून को हाथ में लेने पर सवाल उठा रहे हैं पर अचानक गाय का एंगल डालकर और अपने बच्चों के हिन्दू-मुसलमान पूछकर मार दिए जाने वाली बात को उठाकर वे कहीं न कहीं हिन्दू-मुसलमान एंगल की ओर झुक जाते हैं। यह बात उनके बयान में आगे और साफ है। इस बयान में उन्होंने एक बात और कही कि मुझे मज़हबी शिक्षा मिली थी और मेरी पत्नी (रत्ना पाठक) को इस तरह की शिक्षा नहीं मिली थी पर मैंने अपने बच्चों को मज़हबी शिक्षा नहीं दी, उन्हें कुरान की कुछ आयतें सिखाईं। यह बात इतनी सीधी नहीं है, जितनी दिखती है। नसीरुद्दीन शाह की पत्नी रत्ना पाठक एक हिन्दू ब्राह्मण परिवार में पैदा हुईं पली-बढ़ीं और उन्होंने नसीरुद्दीन शाह से शादी की। इस बात को वह उनकी धार्मिक शिक्षा के अभाव से जोड़कर देखते हैं। ऐसा करते हुए वे हिंदुओं की उस उदारता को नजरंदाज कर जाते हैं, जिसके कारण रत्ना पाठक नसीरुद्दीन शाह से और उन जैसे तमाम शाह,खान,पटौदी आदि आदि हिन्दू परिवारो...