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संदेश

ग्रामप्रधान ने सरकारी खानापूर्ति के लिए भरवा दी बावड़ी

जलाशय हमारी संस्कृति की जीवंत इकाई हैं । उनकी हमारे जीवन और समाज में बहुत रचनात्मक भूमिका होती है । वे जाने-अनजाने हमें रचते हैं । मेरे गाँव के दक्खिन स्कूल वाली बावड़ी भी हमारे लिए ऐसी ही एक रचनात्मक और सांस्कृतिक इकाई थी, जो अब नहीं है । वह आज भी हमारे जेहन में जिंदा है और जब-तब अपनी कथा लेकर पास आ बैठती  है । यह कथा उसकी अपनी आत्मकथा नहीं, उन तमाम जलाशयों की कथा है जिनके ऊपर मनुष्य ने अपने अधिकार की चादर तानकर उन्हें निजी संपत्ति बना लिया । बहुत पुरानी दोस्ती थी। सदियों की। पीढ़ियों से। पीढ़ियाँ! मेरी नहीं उनकी। न जात न पाँत । न छूआ-छूत। न मान –अपमान। सब अपने थे। भैया-चाचा, बहन, बुआ, बेटी। कोई पराया नहीं न कोई अनचीन्हा। आदमी तो आदमी पशु-पारानी, चिरई-चुरुंग सबके लिए खुले थे अपने दरवाजे। घना बगीचा । महुआ और आम की घनी डालियाँ और उनकी छाया में बसा अपना बसेरा। कब से था? किसी को याद नहीं। मुझे भी नहीं । कहाँ तक याद करूँ— इतिहास अपना या गाँव का? हाँ, याद है कुछ तो यह मकान जो तब कच्चा था, मिट्टी और खपरइलों से बना। मिट्टी की भीत, लकड़ी का ठाट और फिर मिट्टी छोप कर ऊपर से खपराइलों की प...

इयर एंड वाली लिस्ट में जंतर-मंतर वाले किसान की तस्वीर

‘रहिमन निज मन की बिथा मन ही राखो गोय’ रहीम की यह उक्ति भारतीय मनुष्य का आदर्श है। हमारे गांव-घर के पुरनिया (बुज़ुर्ग) कहा करते थे, “कम खाओ गम खाओ।” हमारे पुरनिया किसान थे- फटे बिवाई वाले पैर, ओंस और पानी में भी नंगे पांव गेहूं सींचते हुए, ठंड में भी फटी बनियान और लुंगी का फेंटा बांधे हाथ में फावड़ा लिए खेतों में पानी डालने वाले किसान। हम में से तमाम लोगों के पुरनिया कमोबेश ऐसे ही थे। हम गांव से दूर रोज़ी-रोटी की जुगत या उच्च शिक्षा की चाह में भटकते युवा या घर बसा चुके गृहस्थ अपनी एकाध पीढ़ी पीछे मुड़ कर देखें तो बात बहुत पुरानी नहीं लगती है। पर शायद हमारी भूख और ज़ुबान दोनों बढ़ गई है, हम भरपेट खाने की उम्मीद में हैं या खाने लगे हैं। लेकिन अब भी हमारे गांवों में हमारे पुरनियों जैसे बहुत हैं, जिनके पास दाना तो है पर भर-पेट नहीं, ज़ुबान तो है पर आवाज़ नहीं। ये चुप्प और आधे पेट खाए हुए लोग ही हमारी इस विशाल जनसंख्या के अन्नदाता हैं। “साल की बिदाई और स्वागत के शोर में वह कहां है जो कम खाते-खाते चूहे खाने की हद तक उतर आया है?” यह सब क्यों कहा जा रहा है? शायद इसलिए कि इस बीतते हुए इस वर्ष का ...

चीन से मुकाबला करना है तो चीन से ही सीखना होगा कि मार्केट कैसे बनाते हैं

पिछले दिनों कहीं पढ़ा कि भारत बार-बार पाकिस्तान का राग अलापता रहा है, लेकिन उसका वास्तविक और बड़ा शत्रु चीन है। सवाल बड़े और छोटे का नहीं, सोचने के तरीके का है। अगर हम यह सोचते हैं, बोलते हैं और बर्ताव कराते हैं कि कौन मेरा शत्रु है और कौन मित्र तो हमारी सोच धीरे-धीरे शत्रुता और मित्रता में अपने-आप ढलने लगती है। जो मित्र है वह भी शत्रु हो जाता है और जो शत्रु है वह भी मित्र। ज़ाहिर है  भारत और चीन के बीच भी उसी तरह के सीमा विवाद हैं, जैसे भारत और पाकिस्तान के बीच।  दोनों देशों के बीच की सीमाएं, सीमाएं नहीं है, बल्कि नियंत्रण रेखाएं हैं। किसी की नज़र में कश्मीर धंसा है तो किसी की नज़र में अरुणाचल। दोनों ही अपनी लपलपाती जीभ भारत की ओर फैलाए हैं। परन्तु… यह परन्तु… ही वह बिंदु है जहां ठहराना हर भारतीय के लिए विवशता है। हमारे बाज़ार, हमारे दिए, पटाखे, रंग, तीज और त्यौहार सब पर धीरे-धीरे चीन पैर पसार रहा है और हम उसे चुपचाप देखने को विवश ही नहीं, उसके सहभागी भी हैं। हम दुनिया का सबसे बड़ा बाज़ार हैं, दुनिया के तमाम देशों की हममें रुचि है। लेकिन, सीमाई रूप से कोई उतना करीब नहीं है, जित...

उच्च शिक्षा की बेकद्री क्यों

देश की आजादी के बाद भारत सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि आयोगों के गठन हैं । आलम यह है की सरकार यदि हंसने, रोने, छींकने आदि-आदि विषयों पर भी कोई आयोग बना दे तो भी जनता को कोई खास आश्चर्य नहीं होगा । ऐसे में उच्च शिक्षा के नियमन और निर्देशन के लिए एक आयोग का होना आश्चर्य की बात नहीं । संयोग से उसका गठन भी बहुत पहले हो चुका है और यह आयोग तमाम छोटे-बड़े काम कर भी रहा है । उनमें से कुछ की जानकारियाँ सामान्य जन को हैं कुछ की नहीं । भारत के उच्च शिक्षित युवाओं के लिए इसकी सबसे अधिक उपयोग िता या प्रासंगिकता यूजीसी, नेट (राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा ) के कारण है । मुझे याद है अपने छात्र-जीवन में हम उन तिथियों का इंतजार करते थे जब कि नेट की विज्ञप्ति आती, उसकी परीक्षा होती या उसके परिणाम आते थे । इसी क्रम में कभी पता लगता कि यूजीसी ने अचानक बहुत से लोगों को एकमुश्त छूट दे दी है और पहले से पात्रता अर्जित कर चुके अभ्यर्थियों में नई योग्यता वाले अभ्यर्थियों का एक रेला आ जुड़ता । तर्क यह कि पदों की तुलना में योग्य पात्रों की कमी है। मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि इसका परिणाम भीड़ बढ़ाने के अलावा कुछ नहीं...

क्यों है खास मातृदिवस

'मातृ दिवस' इस दुनिया की सबसे सुंदर व्यंग्यात्मक उक्ति है । इस पद को रचने वाला अद्भुत व्यंग्य प्रतिभा का धनी रहा होगा । इस एक पद के लिए उसे साहित्य का नोबल दे दिया जाना चाहिए । शायद उसने यह व्यंग्य मुझ जैसी नालायक संतानों के लिए ही रचा है जो अपनी माँ से कोसों दूर रहते हैं और जिनके पास मातृ दिवस के दिन फेसबुक पर शेयर करने के लिए माँ की गोद में सिर रखे हुए एक चित्र भी नहीं है, जिससे जाहिर हो सके कि मेरी माँ मुझे कितना प्रेम करती है या मुझे उससे किताना लगाव है । मैं उन अभागे मनुष्यों में हूँ, जिन्हें अपनी माँ का साथ बहुत कम मिला और मेरी माँ उन माताओं में जिन्होंने अपने बच्चे के भविष्य के लिए अपनी ममता और इच्छा को भी दबा कर अल्पवयस में ही घर से सैकड़ों मील दूर जाने दिया दिया । तबसे अब तक मैंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा माँ से दूर ही रहकर जिया है और अब भी जी रहा हूँ । मैंने बचपन से लेकर आज तक उन्हें केवल दूसरों की जिंदगी जीते ही देखा है, पहले भी और अब भी । अपनी इच्छा, अपना अधिकार और अपना सुख उनके हिस्से कभी आया ही नहीं । वे पहले भी सारे अधिकारों से वंचित थीं और अब भी हैं । वे तब ...

क्यों खतरनाक है घरों में बने शौचालय

खुले में शौच को जिस तरह का हव्वा बनाया गया है, उससे लगता है कि जलवायु परिवर्तन का सारा दारोमदार खुले में निपटान पर ही है क्योंकि देश में औद्योगिक कचरे और नगरीय कचरे के प्रसार तो स्वच्छता अभियान का सहायक है। किसी भी शहर की सम्पन्नता और आकार का पता उस शहर के बाहर पड़े कचरे के ढेर से चल जाता है, जिससे मुक्ति का कोई उपाय हाल-फिलहाल नहीं दिखता। खुले में शौच पर सरकार ने जितना ध्यान दिया उतना कचरों के निपटान पर क्यों नहीं दिया ? दूसरा पहलू यह भी है कि शौचालयों में पानी की बरबादी अधिक होती है। एक लोटे का काम बाल्टियों में निबटाना पड़ता है। क्या सरकार ने उस अनुपात में भूमिगत जल के पुनर्भरण का कोई मास्टर प्लान बनाया है, जिस अनुपात में वह शौचालयों के निर्माण का दावा कर रही है। शौचालयों की संख्या के साथ उसे यह भी बताना चाहिए कि वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम का उसने कितना प्रचार-प्रसार किया और उसके निर्माण के लिए उसने कितने रूपए किये ? क्या शौचालय निर्माण की तरह इसमें कमीशन खोरी का स्पेस गाँव से लेकर जिले तक बैठे अधिकारियों, नेताओं और मंत्रियों के लिए नहीं है या अभी उसकी और उनका ध्यान नहीं गया है ? सरकार...
सहारनपुर की घटना केवल एक घटना नहीं है, जो बाऊ साहेब और दलितो की लड़ाई से जुड़ी है ; एक पूरा मनोविज्ञान है इसके पीछे । इसे केवल दो जातियों या सवर्ण-अवर्ण या बड़ी जातियों के बर्चस्व की पुनरास्थापना की कोशिश तक सीमित करके देखना उसे एकरेखीय ढंग से देखना है । इन सारी बातों को स्वीकार करते हुए भी उसमें कुछ और बातें जोड़कर देखनी चाहिए; जैसे- आरक्षण को सवर्णविरोधी के रूप में प्रचारित करना, रोजगार के नए क्षेत्रों के विकास और नए पदों के सृजन की उपेक्षा और बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि, दलि तवादी, पिछड़ावादी और आरक्षणवादी बुद्धिजीवियों का लगातार तथा कथित सवर्ण जातियों को कोसना, असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करना और सरकार को कोसने के बजाय इन जातियों को कोसना आदि । इन सबका मिला-जुला प्रभाव सामाजिक वैमनस्य का जो बीज बोरहा था, उसकी लहलहाती फसल है सहरनपुर । जो बौद्धिक लोग सहारनपुर को लेकर आज चिंतित हैं (अबौद्धिक होने के बावजूद मैं भी इसमें शामिल हूं ) उन्हें तभी इसके बारे में चिंता करनी चाहिए थी, जब कि वे सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने में जोर-शोर से लगे थे; बजाय सबके समान और समेकित विकास पर जोर देने के, जात...