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क्यों खतरनाक है घरों में बने शौचालय

खुले में शौच को जिस तरह का हव्वा बनाया गया है, उससे लगता है कि जलवायु परिवर्तन का सारा दारोमदार खुले में निपटान पर ही है क्योंकि देश में औद्योगिक कचरे और नगरीय कचरे के प्रसार तो स्वच्छता अभियान का सहायक है। किसी भी शहर की सम्पन्नता और आकार का पता उस शहर के बाहर पड़े कचरे के ढेर से चल जाता है, जिससे मुक्ति का कोई उपाय हाल-फिलहाल नहीं दिखता। खुले में शौच पर सरकार ने जितना ध्यान दिया उतना कचरों के निपटान पर क्यों नहीं दिया ? दूसरा पहलू यह भी है कि शौचालयों में पानी की बरबादी अधिक होती है। एक लोटे का काम बाल्टियों में निबटाना पड़ता है। क्या सरकार ने उस अनुपात में भूमिगत जल के पुनर्भरण का कोई मास्टर प्लान बनाया है, जिस अनुपात में वह शौचालयों के निर्माण का दावा कर रही है। शौचालयों की संख्या के साथ उसे यह भी बताना चाहिए कि वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम का उसने कितना प्रचार-प्रसार किया और उसके निर्माण के लिए उसने कितने रूपए किये ? क्या शौचालय निर्माण की तरह इसमें कमीशन खोरी का स्पेस गाँव से लेकर जिले तक बैठे अधिकारियों, नेताओं और मंत्रियों के लिए नहीं है या अभी उसकी और उनका ध्यान नहीं गया है ? सरकार...
सहारनपुर की घटना केवल एक घटना नहीं है, जो बाऊ साहेब और दलितो की लड़ाई से जुड़ी है ; एक पूरा मनोविज्ञान है इसके पीछे । इसे केवल दो जातियों या सवर्ण-अवर्ण या बड़ी जातियों के बर्चस्व की पुनरास्थापना की कोशिश तक सीमित करके देखना उसे एकरेखीय ढंग से देखना है । इन सारी बातों को स्वीकार करते हुए भी उसमें कुछ और बातें जोड़कर देखनी चाहिए; जैसे- आरक्षण को सवर्णविरोधी के रूप में प्रचारित करना, रोजगार के नए क्षेत्रों के विकास और नए पदों के सृजन की उपेक्षा और बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि, दलि तवादी, पिछड़ावादी और आरक्षणवादी बुद्धिजीवियों का लगातार तथा कथित सवर्ण जातियों को कोसना, असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करना और सरकार को कोसने के बजाय इन जातियों को कोसना आदि । इन सबका मिला-जुला प्रभाव सामाजिक वैमनस्य का जो बीज बोरहा था, उसकी लहलहाती फसल है सहरनपुर । जो बौद्धिक लोग सहारनपुर को लेकर आज चिंतित हैं (अबौद्धिक होने के बावजूद मैं भी इसमें शामिल हूं ) उन्हें तभी इसके बारे में चिंता करनी चाहिए थी, जब कि वे सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने में जोर-शोर से लगे थे; बजाय सबके समान और समेकित विकास पर जोर देने के, जात...

शहादतें सिर्फ सीमाओं पर नहीं होतीं

शहादतें सिर्फ सीमाओं पर और जंगलों में नहीं होतीं । अपने गावों और घरों में भी होती हैं । भरोसा न हो तो सहारनपुर देख लीजिए । देश में केवल सुकमा और कश्मीर नहीं सहारनपुर भी है । सर्जिकल स्ट्राइक केवल कश्मीर के मोर्चे पर क्यों ? जवाबी कारवाई केवल सुकमा और बस्तर में क्यों ? आपके घरों में क्यों नहीं ? अरे आप तो काँपने लगे, बावु साहेब! मैंने तो केवल बात की आप तो पूरी कारस्तानी कर आए हैं। तब आपके हाथ नहीं काँपे अब आपका पूरा वजूद काँप गया । यही सोच रहे हैं न कि आपके इन कोमल हाथों का  प्रतिवाद अगर किसी कठोर हाथों ने दे दिया तो संभाल भी नहीं पाएंगे । फिर किस बात का दंभ है-- देश के गृहमंत्री का या प्रदेश के मुख्यमंत्री का ( आप के गोतिया हैं न दोनों 'रामराज' के भविष्य ?) या अपनी कुलीनता का? माफ कीजिएगा वो आपके लिए कुछ नहीं कर सकते और न आपकी अमानवीय नीचकर्मा 'कुलीनता' । अगर ये सब अकुलीन मिल उठ खड़े हुए तो ... अरे ! आप नाहक सोच में पड़ गए । मैं तो बस सामाजिक और मानसिक सर्जिकल स्ट्राइक की बात कर रहा हूँ। सीमा और सुकमा के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी । आप जिस मानसिकता में लोगों के...