सहारनपुर की घटना केवल एक घटना नहीं है, जो बाऊ साहेब और दलितो की लड़ाई से जुड़ी है ; एक पूरा मनोविज्ञान है इसके पीछे । इसे केवल दो जातियों या सवर्ण-अवर्ण या बड़ी जातियों के बर्चस्व की पुनरास्थापना की कोशिश तक सीमित करके देखना उसे एकरेखीय ढंग से देखना है । इन सारी बातों को स्वीकार करते हुए भी उसमें कुछ और बातें जोड़कर देखनी चाहिए; जैसे- आरक्षण को सवर्णविरोधी के रूप में प्रचारित करना, रोजगार के नए क्षेत्रों के विकास और नए पदों के सृजन की उपेक्षा और बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि, दलि तवादी, पिछड़ावादी और आरक्षणवादी बुद्धिजीवियों का लगातार तथा कथित सवर्ण जातियों को कोसना, असंसदीय भाषा का इस्तेमाल करना और सरकार को कोसने के बजाय इन जातियों को कोसना आदि । इन सबका मिला-जुला प्रभाव सामाजिक वैमनस्य का जो बीज बोरहा था, उसकी लहलहाती फसल है सहरनपुर । जो बौद्धिक लोग सहारनपुर को लेकर आज चिंतित हैं (अबौद्धिक होने के बावजूद मैं भी इसमें शामिल हूं ) उन्हें तभी इसके बारे में चिंता करनी चाहिए थी, जब कि वे सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने में जोर-शोर से लगे थे; बजाय सबके समान और समेकित विकास पर जोर देने के, जात...
समाज, संस्कृति, साहित्य और विश्व-निति का वर्तमान