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यौन हिंसा की कवरेज में मीडिया को सनसनी नहीं संवेदना दिखानी चाहिए

हिंसा हमारे दौर का सबसे खतरनाक, लेकिन सर्वाधिक प्रचलित शब्द है। सावाल केवल चार सालों का नहीं, उससे पहले और आने वाले समय का भी है। मुझे 2007-2008 की 31दिसंबर/01 जनवरी की रात अब भी याद है, जव न्यू ईयर इव से लौटती लड़कियों के साथ अनाचार हुआ था और पूरा मीडिया बौखलाया हुआ था। उसी साल एक महीन में दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में लगातार यौन हिंसा के हादसे हुए थे। पूरी मीडिया इन खबरों से दहली हुई थी। यह वही साल है जब एक बच्चे ने हरियाणा के एक प्रतिष्ठित स्कूल में अपने सहपाठी की स्कूल में पिता के पिस्टल से मारकर जान लेली थी। ठीक उसी तरह जैसे रेयान पब्लिक स्कूल में पिछली साल हुआ था। मुझे वह बरेली हादसा भी याद है जब दो बहनों की लाशे पेड़ पर लटकती मिलीं थीं। और, मुझे दामिनी भी याद है पर अफसोस, भारत के लोगों की यादाश्त थोड़ी कमज़ोर है, खासकर मीडिया की। उसे हर हादसे को यूनिक बनाकर पेश करने की हड़बड़ी रहती है।  आज एक हादसा अचानक हमारे नाश्ते की टेबल पर हमारे अखबारों के साथ आता है और अगले ही दिन उसकी जगह दूसरा ‘यूनिक’ हादसा हमारी मेज पर होता है।  कभी-कभी तो वह नाश्ते की मेज और दिना...