अफ्रीका और एशिया समेत दुनिया के तमाम पिछड़े देश उनकी प्रयोगशाला भी है और बाजार भी। इन प्रयोगशालाओं में नरसंहार भी होगा और खरीद-बेसाह, दलाली, मुनाफाखोरी और कालाबाजारी भी। बोफोर्स, ताबूत और राफेल की बात पर हंगामा इसलिए होता है कि विपक्षियों को मुद्दा चाहिए, अन्यथा तीसरी दुनिया का कोई सामरिक खरीद फरोख्त बिना बिचौलिए और घोटाले की नहीं होती।
यह क्षेत्र घोटालेबाजों का अतिप्रिय चारागाह रहा है और है। एक ओर इसके कमीशन बड़े और काम रिस्क वाले होते हैं, वहीं सुरक्षा और गोपनीयता के नाम पर इसे छुपाना भी आसान होता है। यदि उससे भी न चले तो जाँच और पारदर्शिता की मांग करने वालों को शत्रुदेशों का एजेंट और राष्ट्रद्रोही कहना और आसान होता है। राष्ट्र की सुरक्षा ऐसा भावुक विषय है कि उसके नाम पर देश की मासूम जनता को बहलाना आसान है। बस आपके अपने कुछ शातिर लोग भीड़ का हिसा होकर 'देश संकट में है' कहकर चिल्लाना शुरूकर दें जनता सब भूलकर उन शातिर लोगों का साथ देने लगेगी।
अब जो सवाल पूछेगा या युद्ध और युयुत्सा का विरोध करेगा वह खुद ब खुद राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिया जाएगा। वह गलियाया भी जाएगा, पीटा भी जाएगा । बाहरी युद्ध और असुरक्षा को देश के भीतर इस तरह बैठा दिया जाएगा कि भीतर का हर आदमी असुरक्षित और एक दूसरे को शत्रु मनाने लगेगा। मार-काट बाहर के बजाय भीतर उतर आएगी। फिर कारोबार करना, कारोबारियों को प्रश्रय देना और अपना हिस्सा वसूलना बहुत आसान होगा । मध्यपूर्व के देश इसके सबसे जीवंत नमूने हैं और कुछ-कुछ हम भी...
लेकिन कारोबारियों को पसंद न आया । पाकिस्तान और चीन के रास्ते देश पर युद्ध थोपे गए फिर भी अंत तक उसे टालने की कोशिश करते रहे। वे जानते थे कि एक बनते और खड़े होते राष्ट्र की क्या जरूरत है ? और वे उसपर हमेशा चलते रहे। यह आसन है कि हम कहें कि हमारे पुरानी नकारा थे उन्होंने हमारे लिए बंगलो नहीं बनवाया, पर तब हम भुल जाते हैं कि उन्होंने हमें अपने खून-पसीने से बंगलो के बारे में सोचने के काबिल बनाया है, वार्ना हमें शाम की रोटी की फिक्र होती या सिर ढंकने की छत की।
इसलिए हमें अपनी अकर्मण्यता को दूसरे के मत्थे डालने तथा और गरियाने के बजाय परंपरा के प्रति कृतार्थ भाव रखते हुए पुरानी भूलें(यदि हैं) ठीक करते हुए आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए।
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