पिछले दिनों राजनीतिक गलियारों में दो मुद्दे खास चर्चा में रहे। एक मुद्दा प्रधानमंत्री की चीन यात्रा का था, जिसपर कांग्रेस अध्यक्ष समेत तमाम प्रतिपक्षी पार्टियों ने आपत्ति की और सवाल उठाए थे और दूसरा मुद्दा था लालकिला, जिसपर बीबीसी के रास्ते सरकार को सफाई देनी पड़ी। ये दोनों मुद्दे नितांत अलग हैं। एक अंतराष्ट्रीय राजनीति का है और दूसरा सरकार की सांस्कृतिक और आर्थिक नीतियों से जुड़ा है। इसी के साथ एक तीसरा मुद्दा भी लेते हैं जो अकादमिक दुनिया के गलियारों में काफी हलचल और ऊहापोह मचाने वाला रहा है। ये तीनों एक खास दृष्टि से संवेदनशील और एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इनके आपसी समबद्धों की पड़ताल से हम वर्तमान सरकार की भावी योजनाओं को समझने की दृष्टि पा सकते हैं ।
प्रधानमंत्री की चीन यात्रा का उद्देश्य अनौपचारिक मैत्री यात्रा थी। ऐसा नहीं कि भारत और चीन के बीच सब सुलझ गया हो और दोनों गलबहियां डाले साथ-साथ चलने के लिए प्रतिबद्ध हो गए हों, पर इतना तो हुआ ही कि तमाम प्रश्नवाचकों को परे धकेलते हुए दोनों देशों के राजनीतिक प्रमुखों ने आपस में मिलने का साहस किया या इच्छा जताई।
आखिर क्यों ? हम जिस समय और समाज में जी रहे हैं, वह दुनिया के स्तर पर एक बदलता हुआ समाज और अर्थव्यवस्था है। एक समाज वह था, जहां कृषि ही सबकुछ थी, दूसरा समाज वह था जहां उद्योग और उनके लिए संसाधन महत्त्वपूर्ण था और तीसरा समाज वह है जहां सेवाएं अहम होती जा रही हैं। दुनिया के वे तमाम देश जो अपनी औद्योगिक क्षमताओं का लोहा मनवाते हुए तीसरी दुनिया के देशों पर अपना अधिकार जमाते रहे, वहां के संसाधनों पर अपना हक जमाते रहे और उपनिवेशीकरण के आधार रहे, आज धीरे-धीरे उद्योगों से दूर होते जा रहे हैं।
जर्मनी हो या ब्रिटेन, इटली हो या फ्रांस इन सभी के बाज़ार चीनी उत्पादों से भरे पड़े हैं। ये वे ही देश हैं जिनके तैयार माल के लिए तीसरी दुनिया बहुत पसंदीदा बाज़ार थी, आज वे तीसरी दुनिया के मालों के बाज़ार बने हुए हैं। तमाम कंपनियां जो इन देशों में काम करती हैं, वे तीसरी दुनिया के इन देशों में अपनी उत्पादन इकाइयां स्थापित कर रही हैं। भारत, कोरिया और चीन जैसे देश उनके लोकप्रिय केंद्र हैं और हो सकते हैं। यह इन देशों की नियति या सौभाग्य का विषय है।
सामाजिक और आर्थिक विकास की इस स्थिति को हम सेवा आधारित समाज/अर्थव्यस्था कहते हैं। पहली और दूसरी अर्थव्यवस्था में संसाधन महत्त्वपूर्ण थे। जहां ज़मीन थी या कच्चा माल था, वहां अधिकार करने की होड़ लगी थी। तीसरी ने दुनिया के तमाम देशों की सीमाएं तोड़ दीं। बर्लिन की दीवार हो या यूरोपीय देशों की सीमाएं ये अनायास नहीं टूटी हैं, बल्कि यह अर्थव्यस्था के तीसरे चरण में पहुंचने के साथ ही संभव हुआ है। ज़मीन, संसाधन या औद्योगिक इकाइयों की जगह बाज़ार और सेवाओं ने ले लिया।
इन संदर्भों को देखा जाये तो यह समझना आसान हो सकता है कि चीन और भारत सीमाई मुद्दों और ज़मीनी कब्ज़ों के परस्पर विरोधी दावों के बावजूद क्यों करीब आना चाह रहे हैं। इसकी शुरुआत नाथुला को खोलने से हो चुकी थी, लेकिन फिर भी चीनी सेना अब तक अतिक्रमण और भारत को धौंस देने से बाज नहीं आ रही थी । शायद रुके वह अब भी नहीं क्योंकि चीन इसके रास्ते भारत पर अपनी बढ़त बनाए रखना चाहता है। लेकिन, कूटनीतिक दृष्टि से दोनों देशों के बीच इस तरह के अनौपचारिक संपर्कों की बारंबारता में वृद्धि होना भी लाज़मी है।
अब आते हैं विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता के प्रकरण पर। भारत और चीन दुनिया के सबसे जनसंख्या बहुल देश हैं और दुनिया के तमाम विश्वविद्यालयों में यहां से जाने वाले छात्रों की संख्या बढ़ रही है। तीसरे चरण की अर्थव्यवस्था क्रमशः मज़बूत होने के साथ भी इन देशों में भी ज्ञानाधारित आउट सोर्सिंग की संभावनाओं का विस्तार होगा। एक तरफ दुनिया के कुछ देशों में संतानोत्पत्ति के लिए अवकाश की व्यवस्था की जा रही है, वहीं इन देशों की जनसंख्या वृद्धि अभी जारी है, ऐसे में भविष्य में पश्चिमी दुनिया के शिक्षा बाज़ार के लिए भारत और चीन बड़े आकर्षण भी साबित होंगे, लेकिन साथ ही अपने देश के भीतर भी इन देशों के लिए शिक्षा के स्ट्रक्चर में बदलाव एक बड़ी चुनौती होगी ।
चीन इस रास्ते पर पहले ही बढ़ चुका है। उसने दुनिया के वस्तु और सेवा बाज़ार में पहुंच के लिए अपने विश्वविद्यालयों को नीतियां बानाने और बहुत से मामलों में उसे स्वायत्त करने के कदम पहले ही उठा लिए हैं। ना केवल औद्योगिक कुशलता और विज्ञान एवं तकनीकी के पाठ्यक्रम बल्कि मानविकी के विषय भी उसने इसी तरह ‘रीस्ट्रक्चर्ड’ फॉर्मेट में पढ़ाना शुरू कर दिया है।
दुनिया की तमाम भाषाओं के अध्ययन के लिए फॉरेन लैंग्वेज विश्वविद्यालयों की स्थापना की है और तमाम अन्य विश्वविद्यालयों में भी इन भाषाओं की पढ़ाई की व्यवस्था की है। इन पाठ्यक्रमों में केवल भाषा नहीं, यहां के समाज, संस्कृति, और रुचियों को भी शामिल किया गया है और उनके अध्यापन के लिए चीनी अध्यापकों के साथ-साथ मूल भाषा भाषी अध्यापकों को भी नियुक्त किया गया है।
महत्त्वपूर्ण यह भी है कि उनकी शिक्षा का माध्यम या तो चीनी है या लक्ष्य भाषाएं। भारत में ये सब प्रक्रियाएं अभी बाकी हैं और इस दृष्टि से हम उनसे दशकों पीछे हैं। भारत की वर्तमान सरकार ने विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता देकर शायद इसी ओर एक कदम बढ़ाया है। भविष्य में इसकी सफलता और असफलता के अपने अर्थ होंगे।
लालकिला प्रकरण भी इन दोनों संदर्भों से जुड़ा है। चीन मंदिरों का संरक्षण शेयर बाज़ार के रास्ते विभिन्न कंपनियों के हाथों में देता रहा है और वे उस क्षेत्र में होटल, मूलभूत सुविधाएं और दूसरी व्यापारिक गतिविधियां शुरू करती रही है। यह प्रक्रिया पिछले दस वर्षों से चल रही है। इस प्रकरण को लालकिला प्रकरण के साथ जोड़कर पढ़ा जाना चाहिए। बीबीसी के हवाले से सरकार का दावा है कि उसने डालमिया ग्रुप को बिना किसी आर्थिक लेन-देन के लालकिले के संरक्षण की ज़िम्मेदारी दी है। यह खबर सही है तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अन्य ऐतिहासिक धरोहरों को भी इस तरह के संरक्षण में दिया जाएगा। भविष्य में ये धरोहरें और उनके आसपास का क्षेत्र उन औद्योगिक प्रतिष्ठानों की आर्थिक गतिविधियों का केंद्र भी बनेंगी।
भारत का पर्यटन उद्योग कॉरपोरेट के साथ जुड़कर एक नया आकार लेगा। चीन की तुलना में भारत के पास इसके लिए अधिक ऐडवांटेज इसलिए है कि वह पहले से ही विश्व के पर्यटकों के लिए एक बड़ा आकर्षण का केंद्र रहा है और उसके पास अकूत सांस्कृतिक धरोहरें हैं। देश के आर्थिक विकास में इनका अहम रोल हो सकता है। इसलिए भारत और चीन दूसरे तमाम क्षेत्रों की तरह अपनी आर्थिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक नीतियों में एक दूसरे के हमराह बनने की ओर अग्रसर हैं।
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