कुछ प्राचीन आख्यानों के अनुसार यज्ञभूमि की अंतिम सीमा प्रयाग थी। यज्ञ आर्यों/भरतों की परंपरा थी। इसका अर्थ प्रयाग भारतवर्ष की पूर्वी सीमा थी। यदि आर्य-आगमन की कथा को आधार माना जाए तो यह आर्यों के आगमन से पूर्व के इतिहास की थाती है। इसके अनार्य होने का एक मिथकीय साक्ष्य यह भी है कि यह प्रदेश मनु-पुत्री (आर्य राजा) इला का राज्य है, जिसे पुरुष-प्रधान आर्य-परंपरा के प्रभाव में राजा इल भी कहा जाता है। पुरुरवा का जन्म इसी कन्या के किसी चंद्रोपसक अनार्यपुरुष ‘बुध’ के साथ सहवास से हुआ।
आर्य-परंपरा को ध्यान में रखते हुए इसे मिथकीकृत करके पुरुरवा ऐल के जन्म की मिथकीय कथा रची गई। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि इसे शिव-पार्वती का रमण-क्षेत्र माना गया और शिव अनार्य देव हैं। तब मन कामेश्वर इस रमण-भूमि के केंद्रीय देवता रहे होंगे। इसे एक शापित क्षेत्र भी कहा गया जहां पहुंचकर पुरुष स्त्री बन जाता है (मिथक के अनुसार मनु के पुत्र के साथ भी ऐसा ही हुआ), अर्थात आर्य-परंपरा के विपरीत भारत-जन के प्रभाव से पूर्व यहां अनार्य स्त्री-प्रधान समाजव्यवस्था लागू रही होगी, जिसके प्रभाव में मनु ने यह क्षेत्र अपनी कन्या को शासन के लिए दिया होगा।
गौरतलब है कि यज्ञभूमि क्रमशः पूर्व की ओर विकसित हुई। बहुत दिनों तक यज्ञभूमि की अंतिम सीमा होने की वजह से इसका नाम प्रयाग पड़ा। इसके पूर्व में पाताल लोक था, जहां असुर-गण रहते थे।
भारत की सबसे उपजाऊ भूमि, घने जंगलों, जलस्रोतों आदि से भरी अकूत संपदा वाला प्रयाग के पूर्व का क्षेत्र हिरण्य-कश्यप और हिरण्याक्ष की राज्य क्षेत्र रहा हो तो आश्चर्य नहीं। लोक-परंपरा में नृसिंह (बाबा) की पूजा के अवशेष अब भी विद्यमान हैं। यह पूजा खुद को कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण मानने वाले किनवार वंश के भूमिहारों में प्रचलित है। आख्यानों के ताड़का, सुबाहु, जरासंध आदि असुरों के वास क्षेत्र भी इसके पूरब में है।
इन मिथकों साथ कुछ दंत कथाएं मिला दी जाए तो यह बात और पुष्ट हो जाती है। दुष्यंत की प्रेयसी शकुंतला का जन्म विश्वामित्र और मेनका के संसर्ग से हुआ था। आधुनिक गाज़ीपुर का संबंध कुछ लोग विश्वामित्र के पिता गाधि से जोड़ते हैं। इसकी संगति में जमनिया जमदग्निया और बलिया को भृगु क्षेत्र मानते हैं। ये वही विश्वामित्र हैं, जो ब्राह्मणत्व को चुनौती देते हैं। संभव है वे स्वयं अनार्य भी रहे हों। यह आश्चर्यजनक ही है कि इस क्षेत्र (लोक-परंपरा के अनुसार) के प्रायः ऋषियों भृगु, दुर्वासा और परशुराम पौराणिक आख्यानों के दूसरे ऋषियों से चरित्र में भिन्न हैं ।
शायद वे आर्य-अनार्य सम्मिलन से जन्में नए आर्य हैं। इसी क्षेत्र के आसपास सोनभद्र की कैमूर की पहाड़ियों में कंडाकोट कण्व का आश्रम भी माना जाता है, जो शकुंतला के पालन-पोषण और पुरुरवा ऐल के वंशज दुष्यंत से उनके प्रणय की भूमि रही होगी।
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