देश की आजादी के बाद भारत सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि आयोगों के गठन हैं । आलम यह है की सरकार यदि हंसने, रोने, छींकने आदि-आदि विषयों पर भी कोई आयोग बना दे तो भी जनता को कोई खास आश्चर्य नहीं होगा । ऐसे में उच्च शिक्षा के नियमन और निर्देशन के लिए एक आयोग का होना आश्चर्य की बात नहीं । संयोग से उसका गठन भी बहुत पहले हो चुका है और यह आयोग तमाम छोटे-बड़े काम कर भी रहा है । उनमें से कुछ की जानकारियाँ सामान्य जन को हैं कुछ की नहीं । भारत के उच्च शिक्षित युवाओं के लिए इसकी सबसे अधिक उपयोगिता या प्रासंगिकता यूजीसी, नेट (राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा ) के कारण है । मुझे याद है अपने छात्र-जीवन में हम उन तिथियों का इंतजार करते थे जब कि नेट की विज्ञप्ति आती, उसकी परीक्षा होती या उसके परिणाम आते थे । इसी क्रम में कभी पता लगता कि यूजीसी ने अचानक बहुत से लोगों को एकमुश्त छूट दे दी है और पहले से पात्रता अर्जित कर चुके अभ्यर्थियों में नई योग्यता वाले अभ्यर्थियों का एक रेला आ जुड़ता । तर्क यह कि पदों की तुलना में योग्य पात्रों की कमी है। मैं यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि इसका परिणाम भीड़ बढ़ाने के अलावा कुछ नहीं हुआ । न तो शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ी और न देश भर के खाली पद भरे जा सके । हुआ तो केवल यह कि यूजीसी ने अपनी ही पात्रता परीक्षा को बार-बार प्रश्नांकित किया और अंततः आज अप्रासंगिक बना दिया है । एक समय वह भी आया कि यूजीसी द्वारा अनुदानित विश्वविद्यालयों के माध्यम से यूजीसी द्वारा संचालित की जाने वाली नेट परीक्षा का केंद्र लेने से कुछ विश्वविद्यालयों ने हाथ खड़ा कर दिये और फिर अराजकता और अव्यवस्था का आलम फैल गया । आयोग ने उससे उबरने के लिए पूरी परीक्षा को ठेके पर सीबीएसई को सौंपा और सुन रहा हूँ अंततः उसने भी हाथ खड़े कर दिये हैं। अतः यह स्पष्ट नहीं है कि जून में होने वाली यह परीक्षा होगी भी या नहीं ? कहीं ऐसा तो नहीं कि इसे पूरी तरह अप्रासंगिक बनाकर समाप्त करने की तैयारी हो रही है ?
लब्बोलुआब यह कि केवल एक काम, देशभर से उच्च शिक्षा के योग्य युवाओं के चुनाव, में जो संस्था असफल रही हो उसकी विश्वसनीयता निश्चित ही संदिग्ध है । इसपर आँख बंद करके भरोसा करना आसान नहीं । इधर सुनने में आया है कि इस संस्था ने कुछ विश्वविद्यालयों से कहा है कि अपने आर्थिक संसाधनों का उत्पादन स्वयं करें, जाहीर है सरकार अनुदान नहीं देना चाहती । फिर अनुदान आयोग का ड्रामा क्यों किया जा रहा है?
मजेदार बात यह कि जो संस्था अपनी स्थापना से आज तक आध्यापक की योग्यता का मानदंड तय नहीं कर पाई, अपने ही नियमों को पलटती रही और बार-बार विसंगतिपूर्ण स्थितिया पैदा करती रही , वह भारत में उच्च शिक्षा की नियामक है । इसके निर्णय संस्थाओं की सरकारी चाकरी के बहुत पुष्ट उदारहरण रहे हैं, ऐसे में यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि यह आयोग संस्थाओं का उचित नियमन, मूल्यांकन और संचालन में सहयोगी भूमिका निभा सकेगा ? इस आयोग की टीमों और जाँचों के परिणामो को वस्तुनिष्ठ कैसे माना जाय ? क्या कभी आयोगा ने स्वयं अपना मूल्यांकन कराया है कि वह परफ़ार्मिंग है या अंडरपरफ़ार्मिंग । ऊपर मैंने केवल एक मुद्दे पर इस आयोग के परफारमेंस का मूल्याकन किया है और रिजल्ट आपके सामने है । इसआधार पर आप स्वयं इसका निर्णय कर सकते हैं ।
लब्बोलुआब यह कि केवल एक काम, देशभर से उच्च शिक्षा के योग्य युवाओं के चुनाव, में जो संस्था असफल रही हो उसकी विश्वसनीयता निश्चित ही संदिग्ध है । इसपर आँख बंद करके भरोसा करना आसान नहीं । इधर सुनने में आया है कि इस संस्था ने कुछ विश्वविद्यालयों से कहा है कि अपने आर्थिक संसाधनों का उत्पादन स्वयं करें, जाहीर है सरकार अनुदान नहीं देना चाहती । फिर अनुदान आयोग का ड्रामा क्यों किया जा रहा है?
मजेदार बात यह कि जो संस्था अपनी स्थापना से आज तक आध्यापक की योग्यता का मानदंड तय नहीं कर पाई, अपने ही नियमों को पलटती रही और बार-बार विसंगतिपूर्ण स्थितिया पैदा करती रही , वह भारत में उच्च शिक्षा की नियामक है । इसके निर्णय संस्थाओं की सरकारी चाकरी के बहुत पुष्ट उदारहरण रहे हैं, ऐसे में यह कैसे उम्मीद की जा सकती है कि यह आयोग संस्थाओं का उचित नियमन, मूल्यांकन और संचालन में सहयोगी भूमिका निभा सकेगा ? इस आयोग की टीमों और जाँचों के परिणामो को वस्तुनिष्ठ कैसे माना जाय ? क्या कभी आयोगा ने स्वयं अपना मूल्यांकन कराया है कि वह परफ़ार्मिंग है या अंडरपरफ़ार्मिंग । ऊपर मैंने केवल एक मुद्दे पर इस आयोग के परफारमेंस का मूल्याकन किया है और रिजल्ट आपके सामने है । इसआधार पर आप स्वयं इसका निर्णय कर सकते हैं ।
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