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जनवरी, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कहाँ गए पुवाल वाले लोग

सर्दियों की ठिठुरती सुबह में दादा-दादी या नाना-नानी के साथ पुआल पर रजाई में बैठे किटकिटाते बच्चे, दांतों के इस कीर्तन के बीच बहुत कुछ सीखते थे। गिनती, पहाड़े, किस्से-कहानियां, भजन-गीत आदि। वह पुआल वाली सुबह बहुत उर्वर होती थी, कब इन सुबहों में बोया गया बीज बड़ा पेड़ बना जाता और बच्चे अपनी परंपरा में दीक्षित हो जाते, पता ही नहीं चलता। पुआलों पर चलने वाली ये घरेलू सांस्कृतिक पाठशालाएं कब बंद हुई, इसे किसी ने नोट नहीं किया। गांव-गिरांव में महंगे स्कूल खुल गए। अपनी-अपनी जेब के अनुसार सबके बच्चे इन स्कूलों में जाने लगे और सीखने लगे ए फॉर ऐप्पल, बी फॉर बॉल। शिक्षा का आधुनिकीकरण हुआ, जीवन बदला, जीवन स्तर बदला साथ ही जीवन को देखने का नज़रिया भी। कल तक एक छप्पर छानने और उठाने के लिए आगे बढ़ने वाले हाथ, आज खेत की मेढ पर बोझा लिए बनिहार या किसान के बोझे को सिर पर रखवाने के लिए भी आगे नहीं बढ़ते। शाम ढलता देख अपनी-अपनी झोरी में बीज रखकर खेत में छिटवाने वाले दूसरे किसान और राहगीर रास्ते से गुज़रते वक्त ठहरकर दो गाल बात भी नहीं करते। फुर्सत किसे है भला? ज़रूरत हो तो बनिहार-मजूर लगा लो। गांव-घर, खे...

क्यों जरूरी है अङ्ग्रेज़ी

मध्यकाल में केशवदास नाम के हिन्दी के एक मशहूर कवि हुए। उन्होंने ब्रजभाषा में कविताएं लिखीं। अपने समय में उनके पांडित्य और आचार्यत्व की धाक ऐसी थी कि उक्ति ही चल पड़ी थी— ‘कवि को देन न चहै विदाई पूछत केसव की कविताई’। वे राज-समाज के अत्यंत प्रिय थे और राजा उनको दरबार में बुलाने के लिए पालकी भेजते थे तब वे दरबार में जाते थे, लेकिन उनके जीवन का एक ही कष्ट था कि ‘भाखा बोल न जानहीं जिनके कुल के दास’ उस कुल में जन्म लेकर भी केशवदास को ब्रजभाषा में कविताएं लिखनी पड़ रहीं थीं। यह दर्द केशव का ही नहीं था, यह उस हर बड़े कवि या रचनाकार का दर्द है जो स्वयं के अभिजात बोध से पीड़ित रहते हुए भी जन दबाव में लोकभाषाओं के वजूद को अस्वीकार करता है। कुछ कम ही ऐसे अभिजातवर्गीय कवि होते हैं जो उस भाषा को अपनी ज़ुबान बनाते हों जो अभिजात वर्ग में सहज स्वीकार्य न होते हुए भी लोक-सामान्य में गहरी पैठ रखती हो। अमीर खुसरो इसके अच्छे उदाहरण हैं। कवियों का उल्लेख बात शुरू करने का बहाना-भर है। यह बात कविता और साहित्य की दुनिया के बाहर सामान्य जीवन में भी लागू होती है। पुराने ज़माने के राजा, सामंत या दरबारी ही नहीं...