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नवंबर, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

क्योंकि मुझे डर नहीं लगता

बचपन से कैशोर्य तक जीवन का एक बड़ा हिस्सा कन्नौज में बीता, जहां घर में शाम ढलते ही घर लौट आने की हिदायत थी । हत्या, लूट और बलात्कार अपहरण के कारनामों से अखबार रंगे रहते थे और तब हमें लगता था कि गाजीपुर का हमारा इलाका शांत है । एक बार इटावा भी गया और संयोग से वहाँ के लोगों का डर देखने और महसूस करने का मौका मिला । भोर में जब हम कॉलेज के12-15 लड़के उस अनजान इलाके में कॉलेज कैंप से भोर में 4:30 पर दिशा-मैदान के लिए कॉलेज बेफिकर गाँव-खेत की ओर निकले और गाँव वाले डाकुओं के झुंड के अंदेशे में हमसे डर गए । पिता जी बिहार में माननीय लालू जी के जनपद में उनकी सरकार के दौरान पदस्थ थे और मैं वहाँ गर्मी की छुट्टियों में जाता रहा। तब चौराहे पर दौड़ा कर की जाती हत्याएँ और तमाशाबीन भीड़ के किस्से सुने और लोगों के डर को देखा-महसूस किया। जब कन्नौज से बनारस लौटा । घर के पास आगया तब गाजीपुर-आजमगढ़-जौनपुर के बादशाहों के नाम सुने, हत्याओं की खबरें पढ़ीं । गाँव से लेकर कस्बे और जिले तक हत्याओं की खबरे देखी, सुनी. पढ़ीं और प्रत्यक्ष महसूस भी किया; आम आदमी से लेकर विधायक और पार्षद तक की अनगिनत हत्याओं की शृं...

इस दिवाली आपके खिलौनों की बड़ी याद आ रही है कुम्हार बाबा

आज दिया-दियारी है। हमारे गाँव घर का जाना-चीन्हा त्यौहार। दिया-दियारी से दीपावली तक हमारे पास बहुत कुछ था जो छूट गया। चन्देव बाबा थे, हमारे पुश्तैनी कुम्हार, उनके हाथ की बारीक कला थी, घुर्ली थी, गुल्लक थे, दिए थे, भोंभा थे, घंटियां थी… उनके हाथ की छुअन थी कि माटी के बेडौल टुकड़े में भी जान भर देती— कोई न कोई आकृति निकाल ही देती। बचपन में दादी और माँ कभी किसी बर्तन के लिए भेजतीं तो मैं तमाम छोटी-बड़ी रंग-बिरंगी आकृतियों बीच देर तक चक्कर काटता रहता। कभी-कभी उनके चाक का चलना, हाथों के सहारे नई आकृतियों का उभरना और एक सूत के सहारे बहुत बारीकी से इसे मिट्टी के शेष लोने से काटकर अलग कर लेना देर तक निहारता रहता। कभी पूछता बाबा ये चाक एक डंडे से कैसे चलता है ? चंदेव बाबा बड़े प्यार से समझाते कि यह कोई बड़ी बात नहीं बस थोड़ा सीखना होता है । मैं कहता बाबा मैं भी चलाऊंगा तो वो बोलते,  ‘बाबू लोग चाक ना चलावे ला। ई त कोंहार क काम ह।’  कोंहार अलग होता है और बाबू के लाइका-बच्चा अलग ये बात गांव घर में बहुत छिटपन में ही पता चल जाती है, सो मुझे भी पता थी और मैं विशिष्टता-बोध से भरकर हट जाता। हां ...

उन मुस्लिम हस्तियों को क्यों अधिक खतरा है जिनकी पत्नियाँ हिन्दू-बेटियाँ हैं

मुझे नसीरुद्दीन शाह के बयान में दो बाते अच्छी लगी। पहली कि अच्छाई या बुराई से धर्म का रिश्ता नहीं है और दूसरा हमें हालात से डरना नहीं उस पर गुस्सा आना चाहिए। इससे लगता है कि वे भीड़ के कानून को हाथ में लेने पर सवाल उठा रहे हैं पर अचानक गाय का एंगल डालकर और अपने बच्चों के हिन्दू-मुसलमान पूछकर मार दिए जाने वाली बात को उठाकर वे कहीं न कहीं हिन्दू-मुसलमान एंगल की ओर झुक जाते हैं। यह बात उनके बयान में आगे और साफ है। इस बयान में उन्होंने एक बात और कही कि मुझे मज़हबी शिक्षा मिली थी और मेरी पत्नी (रत्ना पाठक) को इस तरह की शिक्षा नहीं मिली थी पर मैंने अपने बच्चों को मज़हबी शिक्षा नहीं दी, उन्हें कुरान की कुछ आयतें सिखाईं। यह बात इतनी सीधी नहीं है, जितनी दिखती है। नसीरुद्दीन शाह की पत्नी रत्ना पाठक एक हिन्दू ब्राह्मण परिवार में पैदा हुईं पली-बढ़ीं और उन्होंने नसीरुद्दीन शाह से शादी की। इस बात को वह उनकी धार्मिक शिक्षा के अभाव से जोड़कर देखते हैं। ऐसा करते हुए वे हिंदुओं की उस उदारता को नजरंदाज कर जाते हैं, जिसके कारण रत्ना पाठक नसीरुद्दीन शाह से और उन जैसे तमाम शाह,खान,पटौदी आदि आदि हिन्दू परिवारो...