‘रहिमन निज मन की बिथा मन ही राखो गोय’ रहीम की यह उक्ति भारतीय मनुष्य का आदर्श है। हमारे गांव-घर के पुरनिया (बुज़ुर्ग) कहा करते थे, “कम खाओ गम खाओ।” हमारे पुरनिया किसान थे- फटे बिवाई वाले पैर, ओंस और पानी में भी नंगे पांव गेहूं सींचते हुए, ठंड में भी फटी बनियान और लुंगी का फेंटा बांधे हाथ में फावड़ा लिए खेतों में पानी डालने वाले किसान। हम में से तमाम लोगों के पुरनिया कमोबेश ऐसे ही थे। हम गांव से दूर रोज़ी-रोटी की जुगत या उच्च शिक्षा की चाह में भटकते युवा या घर बसा चुके गृहस्थ अपनी एकाध पीढ़ी पीछे मुड़ कर देखें तो बात बहुत पुरानी नहीं लगती है। पर शायद हमारी भूख और ज़ुबान दोनों बढ़ गई है, हम भरपेट खाने की उम्मीद में हैं या खाने लगे हैं। लेकिन अब भी हमारे गांवों में हमारे पुरनियों जैसे बहुत हैं, जिनके पास दाना तो है पर भर-पेट नहीं, ज़ुबान तो है पर आवाज़ नहीं। ये चुप्प और आधे पेट खाए हुए लोग ही हमारी इस विशाल जनसंख्या के अन्नदाता हैं। “साल की बिदाई और स्वागत के शोर में वह कहां है जो कम खाते-खाते चूहे खाने की हद तक उतर आया है?” यह सब क्यों कहा जा रहा है? शायद इसलिए कि इस बीतते हुए इस वर्ष का ...
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